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हे कुन्त धारण करने वाले कौन्तेय क्षत्रीय यह शरीर जो है बस इतना ही क्षेत्र (अभिधीयते) =बुद्धि से जाना जाता है ।इसको जो ( वेति ).वैदिक तरीके से जान जाता है वह इस तत्व ( एलिमेंट ) से बने क्षेत्र को जानने वाला वैदिक विद्वान क्षेत्रज्ञ ( क्षेत्र को जानने वाला कहा गया है।हे भारत सभी क्षेत्रों का क्षेत्रज्ञ भी मुझे ही जान,बस यह इतना जान लेना ही ज्ञान है यह मेरा मत है,

13 से 18 तक के इन अध्यायों में मैं शरीर की त्रिगुणात्मक प्रकृति के रूप में हूँ .मैं ही सभी के शरीरों को तीन गुणों वाली प्रकृति से वशीभूत करके नचाता हूँ .मेरे कारण ही यह दुनियां रंगीन

कृपया सभी ब्लॉग पढ़ें और प्रारंभ से,शुरुआत के संदेशों से क्रमशः पढ़ना शुरू करें तभी आप सम्पादित किये गए सभी विषयों की कड़ियाँ जोड़ पायेंगे। सभी विषय एक साथ होने के कारण एक तरफ कुछ न कुछ रूचिकर मिल ही जायेगा तो दूसरी तरफ आपकी स्मृति और बौद्धिक क्षमता का आँकलन भी हो जायेगा कि आप सच में उस वर्ग में आने और रहने योग्य हैं जो उत्पादक वर्ग पर बोझ होते हैं।

शुक्रवार, 27 जुलाई 2012

( अध्याय 13 ) क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग ( शब्दानुवाद )

श्री भगवानुवाच 

इदम  शरीरम कौन्तेय क्षेत्रम   इति अभिधीयते

हे कुन्त धारण करने वाले कौन्तेय क्षत्रीय !  यह शरीर जो है......बस  इतना ही क्षेत्र (अभिधीयते) =बुद्धि से  जाना जाता है ।

एतत यः वेत्ति तम   प्राहुः क्षेत्रज्ञः इति तत्व विदः ||13/1|| 

इसको जो ( वेति ) वैदिक तरीके से जाना जाता है वह  वैदिक विद्वान क्षेत्रज्ञ ( क्षेत्र का ज्ञाता ) कहा गया है। इसे ( जानकर)   तत्व विद ( एलिमेंट का जानकार ) विद्वान बन  

क्षेत्रज्ञं च अपि माम विद्वि सर्वक्षेत्रेषु भारत  

हे भारत नामक शरीर सभी क्षेत्रों का क्षेत्रज्ञ भी मुझे ही जान,

क्षेत्र  क्षेत्रज्ञयोः ज्ञानम यत तत ज्ञानम मतम मम ||13/2|| 

बस इस   क्षेत्र  क्षेत्रज्ञ  का  इतना सा ज्ञान ही पर्याप्त  ज्ञान है यह मेरा मत  है | 

 तत क्षेत्रं यत च  यादृक च यद्विकारि   यतः च यत

और वह  क्षेत्र  यहाँ ,    जैसा और जैसे  विकारों वाला है  और जिस कारण से विकार है

सः च य:यत्प्रभावःच ..तत  समासेन में श्रृणु  ।।  13/3   ।।

और उन विकारों के कारण जो और जैसा उनका प्रभाव होता है उसको मुझ से संक्षिप्त में सुन। 

 ऋषिभिः बहुदा गीतं   छन्दोभिः विविधैः पृथक

ऋषियों (वैज्ञानिकों ) ने भी बहुत बार गीतों में इन्हें गाया है   विविध छंदों (ऋचाओं ) में भी पृथक पृथक कर के गाया गया है।  

ब्रह्मसूत्र पदैः च एव हेतु मद्भिः विनिश्चितैः ।।  13/4  ।।

और ब्रह्म सूत्र के पदों ( पद्यों ) में भी  मेरे भावों को जानने हेतु भली भाँती विनिश्चित(वैज्ञानिक प्रयोगों से प्रमाणित ) कर के गाया गया है. 

महाभूतानि अहंकार:बुद्धिः  अव्यक्तं एव च 

पञ्च महाभूत  अहंकार  बुद्धि  और अव्यक्त जीव प्रकृति भी 

इंद्रिय़ाणी  दश.....एकंम  च .....पञ्च च इन्द्रिय गोचरा:  ।।  13/5 ।। 

 दश इन्द्रियाँ  और एक मन जो इन  पञ्च इन्द्रियों के चाऱागाह में चरता रहता है। 

इच्छा द्वेष:सुखं दुःखं  संघातः चेतना धृतिः  

इच्छाएँ  द्वेष  सुख दुःख के संघ चेतना और धृति ( धारणा शक्ति )

एतत क्षेत्र समासेन सविकारं उदाहृतम   ।।   13/6  ।।

 यह इतना सा क्षेत्र है जो संक्षिप्त में विकारों के   उदाहरण सहित  उधृत है 

1.अमानित्वं  2. अदम्भित्वं 3.अहिंसा 4. क्षान्तिः 5.आर्जवं 

1.मान्यता प्राप्त बनने के लोभ से मुक्त रहना  2. दंभ भरने से बचना  3. किसी के भी वाद (विचार, मत, मान्यता ) से द्वेष  नहीं करना,  4. क्षमा करके विवाद को समाप्त कर देना  और    5. सहज बने रहना 

 6. आचार्योपासना 7. शौचं 8. स्थैर्यं 9. आत्म विनिग्रह: ।।  13/7 ।

6 आचरण सिखाने वाले की बातें स्मृति में दोहराते रहना ,  7 पवित्रता बनाये रखना, 8 स्मार्ट बनने की कोशिश नहीं करना 9 अपने पूर्वाग्रहों से  अपने आप को मुक्त करते रहना 

 10. इन्द्रिय अर्थेषु  वैराग्यं 11.अनहंकार: एव च  

  10.इन्द्रियों के स्वार्थों से राग मुक्त रहना और 11.अहंकार के  प्रदर्शन से बचना 

12.जन्म मृत्यु जरा व्याधि दुःख दोष अनुदर्शनं ।।  13/8   ।।

 12.जन्म,  मृत्यु,  वृधावस्था, बिमारी, दुःख, सुख इत्यादि में पहले से ही दोष देखकर  उनक़े  दार्शनिक विवेचन से बचना  

13.असक्तिः अन भिश्वंग: पुत्र: दारः गृहः आदिषु 

 13.पुत्र, पत्नी, घर-गृहस्थि  इत्यादि में आसक्त रह कर उसी में उलझे रहने से बचना  

14.नित्यं च समचित्तत्वं इष्ट अनिष्ट उपपत्तिषु    ।।  13/9  ।।

 14.और नित्य के  दैनिक कार्यों  में सम चित्त होकर लगे रहना इष्ट अनिष्ट को लेकर आपत्ति से मुक्त रहना 

 15.मयि  च अनन्य योगेन भक्ति: अव्यभिचारिणी 

 15.और  मेरी अनन्य  योगों (अन्य से प्रतिस्पर्धा या नक़ल नहीं हो ऐसे आचरण ) द्वारा भक्ति जो अव्यभिचारीणी हो।

16.विविक्त देशसेवित्वं 17.अरतिः जनसंसदि    ।।  13/10  ।

 16.इसके लिए एकांत एवं पवित्र देश (प्राकृतिक भोगोलिक क्षेत्र )का सेवन करे  17,जन संसद में कार्यरत रहने मैं अरुचि हो 

18.अध्यात्म ज्ञान नित्यत्वं तत्व ज्ञानार्थ दर्शनं 

 18.अध्यात्म  ज्ञान के लिए नित्य जिस जिस तत्व का सेवन करे उसके  ज्ञानार्थ दार्शनिक विवेचन करते रहना .   

 एतत ज्ञानम् इति प्रोक्तं अज्ञानं यत अतः अन्यथा  ।।  13/11  ।।

 यह इतना ज्ञान जो प्रयुक्त करता है तब तो यह ज्ञान है. इसे जो अन्यथा लेता है तो वह अज्ञान कहा जाएगा  

ज्ञेयं यत तत प्रवक्ष्यामि यत ज्ञात्वा अमृतं अश्रुते  

जानने योग्य जो ज्ञान है उसे कहता हूँ ....इसे जानकर उस को ज़ान जायेगा जो अमृत वर्षा करता है।अमृत की बूंदें टपकाता है।

अनादिमत परम ब्रह्म न सत  तत  न असत उच्यते ।।  13/12  ।।

अनादि आदिमत  है परम ब्रह्म जिसके लिए   "न सत न असत"   उच्चारित किया जाता है। 

सर्वतः पाणिपादं तत सर्वत अक्षीय शिरोमुखं 

सब तरफ हाथ-पैर वाला वह सब तरफ आँखें ,मुख ,सिरों वाला  

सर्वतः श्रुतिमत लोके सर्वं आवृत्य तिष्टति     ।।   13/13  ।।

सब तरफ से सुन सकता है वह लोक को सब तरफ से आवृत करके स्थिर स्थित है।

 सर्व इन्द्रिय गुणाभासम सर्व इन्द्रिय विवर्जितम 

सभी  की सब इन्द्रियों में गुणों का आभाष कराने वाला सभी की इन्द्रियों से विवर्जित है।(उस अव्यक्त को इन्द्रियों से महसूस नहीं किया जा सकता ) 

असक्तं सर्व भृत च एव,   निगुणीम गुण भोक्तऋ च ।। 13/14 ।।

और खुद असक्त है फिर भी सभी के भीतर चेतना शक्ति देने वाले में खुद में गुण नहीं फिर भी गुणों को वही बार बार भोगता है ।   

बहिः अन्तः च भूतानाम अचरं   चरं एव च 

बाहर और अन्दर सभी भूतों(भौतिक देहधारी प्राणियों )और चर (विचरण करने वाले प्राणी) अचर (वनस्पति) जिवों में भी

सुक्षमत्वात तत अविज्ञेयम दूरस्थं च अन्तिके च तत।।13/15।। 

सूक्ष्म इतना है कि अविज्ञ रूप में सभी के अन्तस्थ में भी है तो सब से दूर तक भी वह फैला हुआ है.

अविभक्तं च भूतेषु विभक्तम इव च स्थितम  .

वह एक ही अविभक्त  सर्वत्र  स्थित है लेकिन सभी भूतों में विभक्त जैसा स्थित लगता है।

भूतभर्तऋ   च तत  ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च  ।।   13/16   ।।

और  वही भूतों में भाव भरता है,जानने वाली बात यह कि वही अणुओं को ग्रसता है ,वही विष्णु का प्रभव है। 

ज्योतिषाम अपि तत ज्योति: तमसः परम उच्यते 

ज्योतिषियों को भी ज्योति देने वाला वह तम (अन्धकार ) से भी परम ( सूक्ष्म ) बोला गया है। 

ज्ञानम् ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठीतम  ।।  13/17  ।।

जानने वाला,जानने योग्य,जानकारी का विस्तार करने वाला वह सर्वत्र एक ही है किन्तु  सभी के ह्रदय में विशिष्ठ है।

इति क्षेत्रं तथा ज्ञानम् ज्ञेयं च उक्तं समासतः 

यह इतना सा क्षेत्र तथा उस क्षेत्र का ज्ञान है जो संक्षिप्त में कहा गया है।

मद्भक्त: एतत विज्ञाय मद्भावाय उपपद्यते   ।।  13/18  ।।

मेरा भक्त इसे विज्ञान सहित जान कर मेरे भावों को प्राप्त करता है।

प्रकृतं पुरुषम च एव विद्धि अनादी उभौ अपि 

प्रकृति और पुरुष को भी अनादी जान जो उभयपक्षी भी है।

विकारान च गुणान च एव विद्धि प्रकृति संभवान ।। 13/19 ।।

और विकार और गुण भी प्रकृति से  संभव होते यह वेद  विद्या भी जान 

कार्य करन कर्तृत्वे हेतुः प्रकृति: उच्यते 

 कार्य,  करण , कर्ता के  हेतु को प्रकृति कहा गया है।

पुरुषः सुखा दुःखानां भोक्तृत्वे हेतु उच्यते   ।।  13/20  ।।

पुरुष दुःख सुख  भोगने  का हेतु  कहा गया है।

पुरुषः प्रकृतिस्थः हिः भुक्तेः प्रकृतिजान गुणान 

प्रकृति में स्थित पुरुष ही प्रकृति जनित गुणों को भोगता है।

कारणं गुणसंगः   अस्य सदसद्योनिजन्मसु    ।।    13/21  ।।

गुणों के संग कारण जुड़ने से ही सत असत से बनी योनियों में जन्म होता है।

उपद्रष्टा  अनुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः 

उपद्रष्टा (मूल द्रष्टा के नीचे पदस्थापित ) और अनुमन्ता (अनुयायी ) भर्ता भोक्ता महेश्वर  

परमात्मा इति च अपि उक्तः देहे अस्मिन पुरुषः परः।।13/22 ।।

और  परमात्मा भी इतने नाम कहे गए है  इस देह में स्थित पुरुष  के  ।


यः एवं वेत्ति पुरुषम प्रकृतिम च गुणैः सह  

जो  इस प्रकृति और पुरुष को जान जाता है,गुणों के सहित

सर्वथा वर्तमान: अपि      न स: भूयः अभिजायते ।। 13/23 ।। 

सदेव सर्वथा  वार्तमान में  रहता है,   नही वह  फिर  हार मानता है।

ध्यानेन आत्मनि पश्यन्ति केचित आत्मना 

अपने ही ध्यान  में रह कर अपने आपको देखता है कोई अपने आप में अपने आप को  

अन्ये सान्ख्येन योगेन   कर्मयोगेन च अपरे  ।। 13/24 ।। 

 अन्य कोई सांख्य योग से (सैद्धांतिक जानकारी का ऊपयोग करके ) और दुसरे कोई कर्म पर प्रयोग कर के ,

अन्ये तु एवम अजानन्तः श्रुत्वा अन्येभ्य: उपासते 

परन्तु  अन्य कोई तो सुन कर भी नहीं जान प़ाते अन्य सुनकर उपासना करते है। 

ते अपि च अतितरन्ति एव मृत्युम श्रुतिपरायणाः ।। 13/25 ।।

किन्तु  वे  भी तर जाते हैं श्रुति परायण होकर मृत्यु के समय 

यावत संजायते किश्चित सत्वं स्थावर जंगमम 

जो कोई भी जन्मता है सत्व से जनमता है स्थावर वनस्पति हो या जंग मय प्राणी हो 

क्षेत्र क्षेत्रज्ञ संयोगात तत  विद्धि भरतर्षभ   ।। 13/26।।

क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से ही जनमता है  ऐसा मान हे भरत ऋषभ (भातीय सांड )

समम  सर्वेषु भूतेषु  तिष्ठन्तम परमेश्वरम

जो सभी भूतों को समान रूप में परमेश्वर में स्थित जानता है

विनश्यत्सु अविनश्यन्तम यः पश्यति सः पश्यति  ।।13/27 ।।

वह जिनका विनाश होते देखता है और जिनको पैदा होते  देखता है सम भाव में देखता है।

समम पश्यन हि सर्वत्र समअवस्थितम ईश्वरम

सामान रूप से देखता है कि सर्वत्र ईश्वर  ही सम भाव से अवस्थित है

न हिनस्ति आत्मना आत्मानम् ततः याति पराम गतिम् ।।13/28 ।। 

तब वह अपने आप ही अपने आप में हीन भावना (अपराध बोध )से ग्रस्त  नहीं रहता अतः तब वह पराम गति में स्थिर स्थित हो जाता है. 

प्रकृत्या  एव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः 

और प्रक्रति से ही सभी के कर्म और क्रियाएं सर्वशः है।

य:पश्यति तथा आत्मानम् अकर्तारम स:पश्यति ।। 13/29 ।।

यह जो देखता है तब वह अपने आप को अकर्ता देखता है।

यदा  भूत पृथग्भावम  एकस्थं अनुपश्यति 

जब जिस क्षण भूतों के पृथक पृथक भावों को एक  ही स्तम्भ के रूप में देखता है

ततः एव च विस्तारं ब्रह्म संपद्यते तदा   ।।  13/30  ।।

और  वह  उस एक का ही विस्तार देखता है तब वह उसी क्षण ब्रह्म पद के सम हो जाता है।

अनादित्वात निर्गुणत्वात परमात्मा अयं अव्यय:

यह अनादि है  तब भी  निर्गुण तब भी परमात्मा अव्यय है।

शरीरस्थ: अपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते  ।।  13/31  ।।

शरीर में स्थित होते हुए भी  कौन्तेय ! न कुछ करता है न ही लिप्त होता है।

यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यात आकाशम न उपलिप्यते 

जिस तरह सर्वत्र गतिशील  सुक्ष्म से सूक्ष्म  में आकाश उपलिप्त नहीं होता  

सर्वत्र:अवस्थितः देहे तथा आत्मा न उपलिप्यते   ।।  13/32  ।

उसी तरह देह में सर्वत्र अवस्थित आत्मा उपलिप्त नहीं होता 

यथा प्रकाशयति एकः कृत्स्नम लोकं इमम रविः

जिस तरह एक ही सूर्य लोक में सब कुछ प्रकाशित कर देता है

क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत   ।।  13/33  ।।

उसी तरह क्षेत्र में क्षेत्री सब कुछ को प्रकाशित करता है। हे भारत !

क्षेत्र क्षेत्रज्ञय़ोः एवं अन्तरम ज्ञान चक्षुषा  

क्षेत्र एवं क्षेत्रज्ञ को आतंरिक ज्ञान चक्षु से देखा लेते हैं

भूत  प्रकृति मोक्षम ये च विदुः यान्ति ते परम   ।।  13/34  ।।

वे भूत उसकी प्रकृति और उनसे मोक्ष  की विधि को जान कर परम यान्ति को प्राप्त कर लेते हैं। 
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